मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि यदि त्याग विलेख पत्र (Renunciation Deed) रजिस्टर्ड नहीं है, तो सभी कानूनी हिस्सेदार जमीन के हकदार माने जाएंगे। हाईकोर्ट के जस्टिस जीएस अहलुवालिया ने यह निर्णय दिया और याचिका को अस्वीकार कर दिया। इस मामले में याचिकाकर्ता रामकुमार राजपूत ने हरदा जिले में स्थित अपनी माता की संपत्ति पर कानूनी अधिकार का दावा किया था, लेकिन कोर्ट ने स्पष्ट किया कि रजिस्टर्ड त्याग विलेख की अनुपस्थिति में भूमि पर सभी कानूनी हिस्सेदारों के हक को बरकरार रखा जाएगा।
याचिका की पृष्ठभूमि
यह मामला हरदा जिले के एक भूमि विवाद से जुड़ा हुआ है, जिसमें याचिकाकर्ता रामकुमार राजपूत ने अपनी माता की संपत्ति पर दावा किया था। रामकुमार का कहना था कि उनके पिता गजराज सिंह के नाम पर एक भूमि थी, जो उनकी मृत्यु के बाद उनके नाम पर स्थानांतरित की गई थी। इसके बाद, उनकी माता निर्मिला के नाम पर उक्त भूमि का नामांतरण हुआ था। लेकिन जब उनकी माता की मृत्यु हुई, तो अनावेदक यानी उनकी तीन बहनों ने इस भूमि पर अपना हक त्यागने का दावा किया था।
तहसीलदार द्वारा नामांतरण की प्रक्रिया
रामकुमार ने दावा किया कि उनकी बहनों ने स्वेच्छा से अपनी हिस्सेदारी त्याग दी थी, और इस आधार पर तहसीलदार ने उनकी भूमि का नामांतरण उनके नाम पर कर दिया था। हालांकि, अनावेदक बहनों ने तहसीलदार के इस आदेश को चुनौती दी थी और एसडीएम के समक्ष अपील दायर की थी। एसडीएम ने तहसीलदार के आदेश को निरस्त कर दिया, जिसके बाद रामकुमार ने संभागायुक्त नर्मदापुरम के समक्ष अपील की थी, लेकिन संभागायुक्त ने भी उसकी अपील खारिज कर दी। इस फैसले के बाद रामकुमार ने हाईकोर्ट का रुख किया और याचिका दायर की।
याचिका में दिये गए तर्क
याचिकाकर्ता ने अपने तर्क में कहा था कि उनकी बहनों ने अपनी स्वीकृति से भूमि का त्याग विलेख (Renunciation Deed) साइन किया था, लेकिन इसे रजिस्टर्ड नहीं करवाया गया था। रामकुमार का यह भी कहना था कि चूंकि यह त्याग विलेख स्वेच्छा से किया गया था और भूमि पर अब कोई अन्य दावा नहीं था, इसलिए तहसीलदार द्वारा किये गए नामांतरण को वैध माना जाना चाहिए। याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि रजिस्टर्ड दस्तावेज की अनिवार्यता नहीं है, क्योंकि भूमि पर स्वेच्छा से हक त्यागने के कारण यह कदम वैध माना जाना चाहिए।
हाईकोर्ट का फैसला
हाईकोर्ट के जस्टिस जीएस अहलुवालिया ने इस मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए कहा कि यदि त्याग विलेख पत्र रजिस्टर्ड नहीं है, तो इसे कानूनी रूप से पूर्ण और प्रभावी नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने कहा कि बिना रजिस्ट्री के, यह दस्तावेज कानूनी रूप से वैध नहीं हो सकता है और इस पर आधारित कोई भी आदेश नहीं दिया जा सकता।
इस निर्णय में हाईकोर्ट ने एसडीएम और संभागायुक्त के द्वारा पारित आदेशों को सही ठहराया, जो पहले ही तहसीलदार के आदेश को निरस्त कर चुके थे। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि सभी कानूनी हिस्सेदारों को भूमि के अधिकार में समान रूप से हिस्सा मिलेगा, और किसी भी स्वेच्छिक त्याग के बिना रजिस्टर्ड दस्तावेज के बिना यह मान्यता प्राप्त नहीं हो सकता।
सभी कानूनी हिस्सेदार होंगे भूमि के हकदार
जस्टिस अहलुवालिया ने इस मामले में कहा कि जब तक त्याग विलेख रजिस्टर्ड नहीं होता, तब तक भूमि के सभी कानूनी हिस्सेदारों का अधिकार बना रहता है। यानी, इस मामले में अनावेदक बहनों का हक भूमि पर बरकरार रहेगा, भले ही उन्होंने भूमि पर अपना हक छोड़ने का दावा किया हो। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि कानूनी दस्तावेज के बिना किसी भी भूमि का नामांतरण पूर्ण रूप से वैध नहीं हो सकता।
इस फैसले का महत्व
यह निर्णय भूमि विवादों में एक महत्वपूर्ण पहलू पर रोशनी डालता है, जहां त्याग विलेख के बिना किसी भूमि के अधिकार को स्वीकृति नहीं दी जा सकती। यह फैसला उन मामलों के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है जहां स्वेच्छा से किसी संपत्ति पर अधिकार छोड़ा जाता है, लेकिन दस्तावेज रजिस्टर्ड नहीं होते। इससे यह भी संकेत मिलता है कि भूमि पर अधिकार से संबंधित सभी दस्तावेजों की रजिस्ट्री अनिवार्य होती है, ताकि भविष्य में किसी भी कानूनी विवाद से बचा जा सके।