सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल राज्य द्वारा ओबीसी (Other Backward Classes) के लिए किए गए आरक्षण के प्रावधानों पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की। यह मामला राज्य सरकार द्वारा 77 समुदायों को ओबीसी श्रेणी में शामिल किए जाने के संबंध में था, जिसे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकार का यह कदम संविधान के अनुच्छेद 16(4) और 1993 के अधिनियम के प्रावधानों के खिलाफ था।
इस मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार के कदमों का समर्थन करते हुए कहा कि मुस्लिम समुदाय को ओबीसी श्रेणी में शामिल करने से जुड़ी प्रक्रिया पर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले को गलत ठहराया गया था। सिब्बल ने बताया कि 2010 से पहले जारी किए गए कार्यकारी आदेशों के आधार पर राज्य ने ओबीसी के अंतर्गत मुस्लिम समुदायों को आरक्षण दिया था, जो एक स्वीकृत प्रक्रिया थी। उन्होंने यह भी कहा कि इस फैसले के परिणामस्वरूप लगभग 12 लाख ओबीसी प्रमाण पत्र रद्द हो गए हैं, जिससे लाखों लोगों को प्रभावित किया गया है।
इस मामले में राज्य सरकार का पक्ष रखते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता पीएस पटवालिया ने तर्क दिया कि 77 समुदायों के लिए आरक्षण बिना किसी सर्वेक्षण या डेटा के और पिछड़ा वर्ग आयोग की राय लिए बिना दिया गया था। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री द्वारा तत्कालीन घोषणा के बाद राज्य सरकार ने यह कदम उठाया, और बिना किसी सही प्रक्रिया के आरक्षण लागू किया।
न्यायालय की आपत्ति
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पश्चिम बंगाल उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी, जिसमें राज्य के आरक्षण नियमों को खारिज कर दिया गया था। कोर्ट ने सवाल किया कि किस आधार पर राज्य ने उच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद ओबीसी समुदायों को आरक्षण देने की प्रक्रिया को अपनाया था। जस्टिस गवई ने यह टिप्पणी की कि “क्या किसी प्रावधान का संभावित दुरुपयोग उसे समाप्त करने के लिए पर्याप्त कारण है?” यह सवाल महत्वपूर्ण था क्योंकि कोर्ट ने राज्य सरकार की शक्ति पर संदेह किया था और पूछा था कि क्या ओबीसी के लिए वर्गीकरण करना कार्यपालिका की शक्ति है या न्यायिक क्षेत्राधिकार में आता है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा) (सेवाओं और पदों में रिक्तियों का आरक्षण) अधिनियम, 2012 के तहत राज्य को वर्गों की पहचान करने का अधिकार है। न्यायालय ने इस बारे में भी चिंता व्यक्त की कि कैसे राज्य ने आयोग को दरकिनार कर और बिना डेटा के यह वर्गीकरण किया।
मुस्लिम ओबीसी समुदायों के लिए आरक्षण पर अदालत की राय
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर भी विचार किया कि क्या धर्म के आधार पर आरक्षण देना संवैधानिक है। न्यायमूर्ति गवई ने स्पष्ट किया कि “आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं हो सकता है”, और यह केवल पिछड़ेपन के आधार पर दिया जा सकता है, जिसे कोर्ट ने पहले ही बरकरार रखा है। सिब्बल ने यह भी बताया कि मुस्लिम ओबीसी समुदायों के लिए आरक्षण रद्द करने के आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी, और मामला अब लंबित है।
न्यायालय ने यह निर्णय लिया कि राज्य को ओबीसी श्रेणी में वर्गीकरण करने के लिए उचित प्रक्रिया और डेटा की आवश्यकता है, और यदि यह प्रक्रिया संविधान के अनुसार नहीं की जाती है, तो इसे खारिज किया जा सकता है।
अंत में क्या होगा?
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई को 7 जनवरी, 2025 तक स्थगित कर दिया। इसके साथ ही कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह इस मामले में उचित हलफनामा दाखिल करे, जिसमें यह बताया जाए कि क्या ओबीसी समुदायों के लिए आरक्षण देने की प्रक्रिया में पिछड़ा वर्ग आयोग से सलाह ली गई थी या नहीं।
पूर्व चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने इस मामले में आगे की सुनवाई के लिए राज्य सरकार से आवश्यक डेटा और रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा है।